Tuesday, June 2, 2015

अरे,फिर खो गई।


                                                   

पता नहीं कहाँ रख दिया,
जहाँ तक याद है,
टेबल से उठा के,
सहेज कर रखी थी,
अब तो ,न,
वो सहेजने की जगह सलामत है,
न ही वो कमबख्त,
नीरी,छोटी सी चाभी,
पर बात वहाँ कहाँ खत्म हुई,
उस नन्ही चाभी को ढूंढने के चक्कर में,
महीनों पहले खोई,
कान की बाली मिल गई,
बाली मिलने की खुशी ने,
चाभी के दर्द को भुला दिया।
मैनें नये ताले और चाभियाँ,
मगवां ली।
अभी जिन्दगी फिर से रास्ते पर थी।
पर अफसोस,
आज नई चाभी फिर खो गई है।
और,डर है,
उसे ढूंढने के चक्कर में,
पूरानी वाली न मिल जाए।

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